सामाजिक न्याय के मामले में बेनकाब होने के बावजूद भाजपा का पलड़ा क्यों है भारी!

सामाजिक न्याय के मामले में बेनकाब होने के बावजूद क्यों भारी है भाजपा का पलड़ा


भारतीय जनता पार्टी ने हिन्दुत्व की छतरी को विराट बनाकर सामाजिक न्याय की मांग को उसके नीचे दबा दिया था लेकिन उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने के बाद भाजपा के कई मंत्रियों और विधायकों ने जिन आरोपों को लगाते हुए अपनी पार्टी छोड़ी है उसके कारण सामाजिक न्याय का मुद्दा फिर केन्द्र बिन्दु बन गया है। यहां तक कि सपा के मुखिया अखिलेश यादव तक सामाजिक न्याय के मुद्दे पर रक्षात्मक खेल खेलने को मजबूर हो गये थे और उन्होंने सवर्णों को प्रसन्न रखने की नीति पर अपना ध्यान जमा दिया था। अब वे भी पिछड़ों की राजनीति करने पर फिर से उतर आये हैं। उन्होंने ओमप्रकाश राजभर और स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेताओं से मेल मिलाप किया है, जो तीखे शब्दों में खुलेआम वर्ण व्यवस्थावादी वर्चस्व के खिलाफ बोलने के आदी हैं। अब उनके साथ होने से सवर्णों के बिदकने की बहुत परवाह अखिलेश यादव नहीं कर रहे हैं। दूसरी ओर भाजपा को भी अपनी दशा और दिशा बदलनी पड़ी है। पार्टी के उत्तर प्रदेश के प्रत्याशियों की पहली सूची में जहां सवर्णों को मात्र 43 टिकट दिये गये हैं वहीं पिछड़े और दलितों के उम्मीदवारों की संख्या 63 है।

संकेत है कि बाद की सूचियों में भी वंचितों का बाहुल्य रहेगा। लेकिन शायद यह केवल चुनावी नैया पार करने की रणनीति है। भाजपा का असली लक्ष्य है हिन्दू राष्ट्र का निर्माण, जिसमें न केवल अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे पर धकेलने का भाव निहित है बल्कि पिछड़ों और दलितों को भी सेवक की भूमिका तक ही सीमित करने का उद्देश्य भी निहित है। इस मामले में केवल इतनी उदारता अब बरती जा रही है कि समायोजन भर के लिए दलित और पिछड़ों को भी राजनीति व प्रशासन में प्रतिनिधित्व दिया जाये न कि समावेशी राजनैतिक प्रशासनिक गठन के लिए उन्हें मजबूत भागीदारी देना।


जब तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को स्वतंत्र रूप से कार्य करने का अवसर नहीं मिला था तब तक आरएसएस ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के लिए प्राथमिकता पर इस कारण मात्र प्रस्तावित किया था कि वे मुसलमानों के मामले में गुजरात में नरेन्द्र मोदी द्वारा अपने कार्यकाल में किये गये प्रदर्शन का सफल संस्करण उत्तर प्रदेश में बन सकते हैं। हालांकि सामाजिक न्याय के मामले में उनसे संघ को बहुत अपेक्षायें नहीं थी क्योंकि वे गोरखपुर की उस गोरक्षा पीठ के वारिस हैं, जिसका गठन मनुवाद के खिलाफ हुआ था और यह पीठ सवर्णों के बीच ही आपस में सत्ता सघर्ष का गवाह शुरू से रही है; पर वर्ण व्यवस्था का पालन कराने की कसौटी पर योगी भाजपा के किसी भी दूसरे सत्ताधीश की तुलना में अधिक खरे साबित हुए हैं। अभी जिन पिछड़े नेताओं ने उनकी जातिगत आधार पर भेदभाव परक नीति के विरोध में आवाज उठाकर पार्टी छोड़ी है, उन्हें यह आरोप लगाकर खारिज करने की कोशिश की जा रही है कि वे लोग अपने परिवार को टिकट दिलाने या अपनी सीट बदलवाने की कोशिश में थे जो पार्टी को मंजूर नहीं था। इसलिए वे पार्टी छोड़ने के पीछे दूसरी जगह यह मंशा पूरी होने की आशा में बहानेबाजी कर रहे हैं; पर यह आरोप अचानक सामने नहीं आये हैं। इसके पहले स्व0 कल्याण सिंह जब वीपी सिंह की जयंती में मुख्य अतिथि बनकर लखनऊ आये थे तो पिछड़े वर्ग और दलितों को प्रशासन में बेहतर पोस्टिंग के मामले में उपेक्षित किये जाने का आरोप उन्होंने भी प्रकारांतर से लगाया था। अपना दल की अनुप्रिया पटेल ने भी की पोस्टिंग में पिछड़ों को समुचित भागीदारी दिलाने के लिए आवाज बुलंद की थी, जिसके कारण उन्हें कुछ दिनों तक को केन्द्रीय मंत्रिमंडल से बाहर हो जाना पड़ा था। उपेक्षित जातियों के नेताओं में ही नहीं उनमें निचले स्तर तक उपेक्षित किये जाने का एहसास था, जिसकी वजह से भाजपा छोड़ने वाले मंत्री, विधायकों द्वारा यह मुद्दा उठाये जाने से उनके जख्म खुरच गये और विधानसभा चुनाव से ठीक पहले भाजपा की स्थिति खराब हुई। साथ-साथ में गवर्नेंस का परिचय न दे पाने की वजह से भी उत्तर प्रदेश में एन्टी कोम्बेंसी फैक्टर गाढ़ा हुआ। कहने की जरूरत नहीं कि योगी की वजह से भाजपा को उत्तर प्रदेश में सत्ता में दोबारा लौटना मुश्किल हो रहा है, जिसके चलते उन्हें चुनाव अभियान में पीछे किया गया है। फिर भी कोई यह समझे कि चुनाव नतीजों में भाजपा को अगर मामूली बहुमत मिला तो योगी फिर से मुख्यमंत्री नहीं बन पायेंगे ऐसा सोचने वाले गलतफहमी में हैं। संघ की जरूरतों के लिए तो शूद्र नेता नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री के रूप में वरण करना मजबूरी की अंतरिम व्यवस्था है। संघ तो हिन्दू राष्ट्र का सामाजिक माडल साकार करना चाहता है, तभी हिन्दू राष्ट्र का सपना साकार हो सकता है। योगी इसके लिए सबसे मुफीद हैं, इसलिए संघ अब योगी का कद नहीं गिरने देगा और चाहे पर्याप्त बहुमत मिले या सीमांत बहुमत; मुख्यमंत्री की कुर्सी से योगी टस से मस नहीं किये जायेंगे।
वैसे भी मोदी ऐसे सामाजिक माडल वाले हिन्दू राष्ट्र की ओर ही कदम बढ़ाने वाले मोहरे साबित हो रहे हैं। अपने पहले प्रधानमंत्रित्व काल में अपने पिछड़ी जाति का होने का वे जिस तरह दम भरते थे, वैसी दुहाई देना उन्होंने अब बंद कर दिया है। उनके मंत्रिमंडल में भी कोई पिछड़ा महत्वपूर्ण पद पर नहीं है। आरक्षण को धता बताने के लिए उन्होंने लेटरिल इंट्री का फार्मूला तय किया है। वे पिछले कार्यकाल में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की विचारधारा का बहुत हवाला देते रहे हैं, लेकिन अपने कृतित्व में उन्होंने अपने को वर्ण व्यवस्था का स्वामी भक्त सिपाही सिद्ध किया है। मोदी संघ की मंशा को अच्छी तरह भांपते हैं, इसलिए योगी द्वारा कई बार अपनाई जा चुकी अवज्ञाकारी मुद्राओं को भी झेलना अब उन्हें मंजूर हो गया है। सवाल यह है कि सवर्णों का मानसिक और बौद्धिक प्रभुत्व क्या अभी भी इतना मजबूत है कि बाहुल्य में होने के बावजूद हिन्दू समाज के वंचित तबके उनकी उंगलियों पर अपने को नाचने के लिए मजबूर पा रहे हैं।
बाबा साहब अम्बेडकर के साथ-साथ सवर्ण होते हुए भी डा0 राम मनोहर लोहिया ने राजनीतिक लोकतंत्र की सफलता के लिए सामाजिक लोकतंत्र कायम करने को अनिवार्य माना था। इन दोनों महापुरूषों का सोचना था कि देश में सही तरीके से नागरिक तंत्र स्थापित करने के लिए वर्ण व्यवस्था का टूटना लाजिमी हो गया है, लेकिन दोनों किसी भी रूप में वर्ण व्यवस्था की वापिसी नहीं चाहते थे। यानी यह नहीं चाहते थे कि वर्ण व्यवस्था के पिरामिड में अभी जिस तरह से सवर्ण हैं, उस तरह से दलित और पिछड़े स्थापित कर दिये जायें। उनके लिए वर्ण व्यवस्था की समाप्ति का चरण साफ सुथरे और आदर्श लोकतंत्र को कायम करना था। यानी लोकतांत्रिक मूल्य सर्वोच्च थे, जिनके निर्वाह के लिए डा0 लोहिया ने केरल की पहली गैर कांग्रेसी सरकार को भंग करा दिया था और जिसकी वजह से डा0 लोहिया की पार्टी विभाजित हो गई थी। दोनों महापुरूष सोचते थे कि अगर सत्ता पिछड़ों और दलितों के पास आयेगी तो वह लोकतंत्र के लिए अधिक समर्पित होंगे, क्योंकि उन्होंने समाज व्यवस्था के औपनिवेशिक स्वरूप के दंश को झेला है। …पर उनके वैचारिक उत्तराधिकारी इस कसौटी पर अपने को खरा साबित नहीं कर पाये। उत्तर प्रदेश में सत्ता में आने पर अम्बेडकरवादी मायावती ने सामंती तौर तरीके अपनाकर लोकतंत्र को सूली पर लटका दिया। डा0 अम्बेडकर तो ईमानदारी के लिए इतना प्रतिबद्ध थे कि जब उनके इकलौते पुत्र को जरिया बनाकर उन्हें इमोशनल ब्लैकमेल करके उनसे गलत काम कराने की कोशिश की गई तो उन्होंने अपने पुत्र का दिल्ली से पुणे का वापिसी का टिकट कटवा दिया; पर मायावती ने तो ट्रांसफर पोस्टिंग में रुपए लेने व मासिक वसूली तय करने का ऐसा रिवाज चलाया कि स्वच्छ प्रशासन की कल्पना ही दूभर हो गई। उत्तर प्रदेश और बिहार की पिछड़ी सरकारों ने फासिस्टशाही की ऐसी इंतहा कर डाली गई कि अगर डा0 लोहिया जिंदा होते तो ऐसी समाजवादी संतानों को नकारने में देर न लगाते। साम्प्रदायिकता के विरोध और दलितों के संदर्भ में सामाजिक न्याय को लेकर इनके विचार बहुत दूषित रहे। डा0 लोहिया ने तो चुनाव हारना मंजूर किया लेकिन तुष्टीकरण नहीं। उनका लक्ष्य बहुसंख्यक हठधर्मिता की तरह ही अल्पसंख्यक हठधर्मिता के आगे भी सिर न झुकाना था। पर उनके एकलव्य मुलायम सिंह और लालू यादव ने अल्पसंख्यक कट्टरता को हवा देने के सारे रिकार्ड तोड़ दिये और भाजपा को इसी की बदौलत अपने सर्वसत्तावादी पैर देश में जमाने में सफलता मिली।


वीपी सिंह का डा0 लोहिया और उनकी विचारधारा से प्रत्यक्ष तौर पर कोई संबंध नहीं था पर कांग्रेसी संस्कार लेकर जब वे तथाकथित समाजवादियों से जुड़े तो उन्होंने डा0 लोहिया और जयप्रकाश नारायण के विचारों व संकल्पों को आगे ले जाने का बेहतरीन प्रयास किया। डा0 लोहिया कहते थे कि समाज व्यवस्था में जो लोग सबसे नीचे रखे गये हैं, सबसे पहले उन्हें आगे किया जाये। यानी दलितों और इसके बाद पिछड़ों को सवर्ण कुछ दशकों के लिए नेतृत्व की अभिलाषा छोड़ दें। इसी के तहत वीपी सिंह ने जब रामविलास पासवान को प्रधानमंत्री बनाने के लिए पहल की तो अपने को उनका लेफ्टिनेंट घोषित करने वाले लालू प्रसाद यादव ने अंतिम समय में उन्हें अपना बैरी मान लिया। ऐसा लगता है कि पिछड़ी जातियों के नेतृत्व का मकसद वर्ण व्यवस्था से लड़ने की बजाय उनकी महत्वाकांक्षा यह रही कि उन्हें जनेऊ पहनने का अधिकार मिल जाये ताकि वे भी वर्ण व्यवस्था में सम्मानजनक ढं़ग से खप सकें और दलितों पर वैसी ही अन्यायपूर्ण हुकूमत चला सकें जैसी सवर्ण चलाते रहे हैं। जब-जब वे सत्ता में आये उन्होंने दलितों के प्रति अपने द्वेष का परिचय दिया जबकि सवर्णों के कृपा पात्र बनने की कोशिश करते रहे।


वीपी सिंह ने जनता दल के समय डा0 लोहिया और जेपी की मंशा के राजनीतिक सुधारों को अमल में लाने की कोशिश की, जिसके कारण उन्हें समाजवादी थिंक टैंकों का समर्थन मिलना चाहिए था, पर डाह के कारण समाजवादी चिंतक इस रास्ते से भटक गये और मुलायम सिंह जैसों की वंशवादी, परिवारवादी व फासिस्ट नीतियों को बल देने के लिए अभिशप्त हो गये, जिससे समाजवादी आंदोलन की पूरी साख मटियामेट हो गई।
आज अगर सामाजिक भेदभाव का शिकंजा कसने के खतरे के बावजूद पिछड़ों और दलितों में भाजपा की पैठ बहुत कमजोर नहीं हो पा रही है तो उसकी वजह साफ है। भाजपा के प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री व्यक्तिगत रूप से पूरी तरह ईमानदार हैं। नियमों के तहत प्रशासन चलाने के हामी हैं। योजनाओं के क्रियान्वयन में पक्षपात नहीं होने दे रहे हैं। उनकी सरकारों के यह सकारात्मक गुण उनका पलड़ा भारी किये हुए हैं, इसलिए तमाम बवंडरों के बावजूद सारे सर्वे उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत का निष्कर्ष प्रतिपादित कर रहे हैं।

केपी सिंह (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

Published by Sanjay Saxena

पूर्व क्राइम रिपोर्टर बिजनौर/इंचार्ज तहसील धामपुर दैनिक जागरण। महामंत्री श्रमजीवी पत्रकार यूनियन। अध्यक्ष आल मीडिया & जर्नलिस्ट एसोसिएशन बिजनौर।

Leave a Reply

Please log in using one of these methods to post your comment:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s